पहाड़ में हर दस साल में होने वाली अस्कोट-आराकोट यात्रा इस साल 25 मई से आठ जुलाई तक चलेगी। यह यात्रा उत्तराखंड के 350 सुदूर गांवों, 35 नदियों के किनारे, 16 बुग्याल, 20 खरक और 5 जनजाति क्षेत्र से गुजरते हुए कुल 1150 किलोमीटर दूरी तय करेगी। यह यात्रा पिथौरागढ़ के पांगू से प्रारंभ होगी। इस साल यात्रा की 50वीं वर्षगांठ है।
गांव, समाज और पहाड़ को समझने के लिए कोई भी पहाड़ प्रेमी इस यात्रा का हिस्सा बन सकता है। इसके लिए आयोजकों द्वारा जारी एक फार्म भरकर कुछ सवालों के जवाब देने होंगे। यात्रा अभियान के संस्थापक पद्मश्री डॉ.शेखर पाठक ने बताया कि अस्कोट-आराकोट जैसी यात्राएं हिमालय को समझने की ठोस पहल है। 974 और इसके हर दस साल बाद हिमालयी क्षेत्र की इस यात्रा ने 1984, 1994, 2004 और 2014 के पड़ाव पार किए।
बहुगुणा से प्रेरित होकर शुरू हुई थी यात्रा अभियान के सहयोगी वरिष्ठ पत्रकार पूरन बिष्ट ने बताया कि इस बार मुख्य यात्रा मार्ग से गुजरने वाली प्रमुख सहायक नदी घाटियों में भी अलग-अलग अध्ययन दल यात्रा करेंगे। जनवरी 1974 को जब गांधीवादी सर्वोदय कार्यकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा अपनी 127 दिवसीय 1500 किलोमीटर लंबी यात्रा के मध्य अल्मोड़ा में ठहरे तो उनके साथ टिहरी के युवा कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर भी थे।
यात्रा के योजनाकार प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून, शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव नयन बहुगुणा, हरीश जोशी, राकेश गुरुरानी, विजय जड़धारी।
25 मई 1974 को श्रीदेव सुमन की जयंती पर राइंका अस्कोट से यह ऐतिहासिक यात्रा प्रारंभ हुई। जो 45 दिनों में 750 किलोमीटर के दौरान 9 से 14 हजार फुट तक के तीन पर्वत शिखर के साथ ही 200 से अधिक गांवों, कस्बों से गुजरी। पहली ही यात्रा में युवा पथिकों ने पहाड़ का पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर को कमियां चिन्हित की, जो कालांतर में पहाड़ विमर्श का हिस्सा बनी।
यात्रा दल में पूरी या आंशिक हिस्सेदारी के लिए पहाड़ को वास्तविक गहराई से जानने-समझने वाले जगह मिलेगी। यह यात्रा मनोरंजन या सैर-सपाटे के लिए नहीं है। पदयात्री के पास पिट्ठू, स्लीपिंग बैग, एक प्लेट, पानी की बोतल, जरूरी गरम कपड़े, डायरी, कापी, कलम, कैमरा, रिकार्डर, हैंड माइक(चैलेंजर) हो तो बेहतर। पहाड़ की वेबसाइट www.pahar.org से अभियान से जुड़ी सूचना, यात्रामार्ग के मानचित्र की जानकारी ली जा सकती है।
यह एक दुर्लभ संयोग है कि जिस वर्ष भी उत्तराखंड के सामाजिक परिवेश को जानने-समझने के लिए यात्रा की गई। उसी वर्ष उत्तराखंड के समाज में बड़े आंदोलन भी जन्में। 1974 में चिपको आंदोलन, 1984 में नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन और 1994 में उत्तराखंड आंदोलन का उभरना एक संयोग था। अभियान से लोगों में चेतना का विस्तार हुआ। खाड़ी, यमुना घाटी में धूम सिंह नेगी के नेतृत्व में बीज बचाओ आंदोलन ने अलग पहचान बनाई।