
दो हफ्ते पहले, केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने एक और भी खतरनाक परिदृश्य व्यक्त किया है, जिसमें कहा गया है कि हाल ही में आई बाढ़ और मूसलाधार बारिश में लगभग 15 राज्यों में 64 लाख हेक्टेयर भूमि अलग थलग पड़ गई है. इसके बावजूद, निवारक उपाय करने के मुद्दे पर सरकार ढुल-मूल रवय्या अपना रही है.
फरवरी में, मौसम के अंत मैं, अक्टूबर से, प्रधानमंत्री अन्नादता आय समरक्षण अभियान (पीएम-एएएसए) के तहत सरकार लगभग 37.59 लाख मीट्रिक टन दालों और तिलहन की खरीद करने वाली थी. मगर निर्धारित अवधि से दो महीने अधिक बीत जाने के बावजूद अब तक केवल 10 लाख टन (जो कि वादा की गयी खेप से 3% से कम है) की खरीद की गई है! उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में अभी तक खरीद प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है!
जब किसी भी कृषि उत्पाद की पैदावार में गिरावट होती है – आपूर्ति और मांग के बीच की खाई चौड़ी हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप बाजार की ताकतें उत्पाद की कीमतें बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए सरकार के पास मांग और आपूर्ति को समान स्तर पर रखने के लिए पर्याप्त भंडार होना चाहिए.
वैश्विक दलहन उत्पादन में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी होने के बावजूद भारत में फसल अक्सर घरेलू खपत के लिए पर्याप्त नहीं होती है, जिसके परिणामस्वरूप भारत को अन्य देशों से आयात करने की आवश्यकता पड़ती है. यद्यपि तिलहन की खेती लगभग 12-15% अंतर्देशीय कृषि भूमि पर होती है,
लेकिन बाहरी स्रोतों से खाना पकाने के तेल का आयात करना भारत के लिए अपरिहार्य है. इस निर्भरता को खत्म करने के लिए, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने सात साल पहले एक दीर्घकालिक रणनीति का प्रस्ताव रखा था. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ‘संप्रग’ की सरकार ने खाना पकाने के तेल को लेकर आत्मनिर्भर होने के लिए राय मांगी थी. दालों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए और समर्थन मूल्य पर गौर करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया है.