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गरिमा विशाल अनोखे स्कूल “डिजावू स्कूल ऑफ इनोवेशन“ से जगा रही समाज में शिक्षा की अलख

किसी ने सही ही कहा है पहचान से मिला काम,बहुत कम समय के लिए टिकता है, पर काम से मिली पहचान उम्र भर कायम रहती है।

आज के बदलते परिदृश्य में बहुत कम लोग होते हैं जो सफलता प्राप्त कर लेने के बाद एक बार पीछे मुड़कर समाज की तरफ जरूर देखते हैं और विचार करते हैं कि हम तो आगे बढ़ आए हैं और अब बारी समाज को आगे बढ़ाने की है। अपना दायित्व निभाने की यह भावना चुनिंदा व्यक्तियों में ही देखने को मिलती है जो देश के नमक का कर्ज अदा करना चाहते हैं। समाज में ऐसे ही सकारात्मक परिवर्तन  को लाने वाले अपने दायित्व को प्राथमिकता दी है बिहार की 28 वर्षीय गरिमा विशाल ने।

वैसे तो आमतौर पर आईआईएम जैसे संस्थान से ग्रेजुएट होने वाले स्टूडेंट्स का एक सपना होता है, लाखों करोड़ों के पैकेज वाली शानदार नौकरी का लेकिन गरिमा जैसे लोग पैसे का मोह छोड़ समाज के बारे में सोचते हैं। तभी तो गरिमा ने लाखों का पैकेज छोड़ मुजफ्फरपुर में गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक अनोखा स्कूल प्रारम्भ किया जिसका नाम है “डिजावू स्कूल ऑफ इनोवेशन“।

मधुबनी की बेटी और मुजफ्फरपुर की बहू गरिमा ने बच्चों को पढ़ा कर समाज को बदलने का रास्ता चुना। अपने स्कूल के माध्यम से गरिमा ने शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षित करने के लिए देश में लागू शिक्षा प्रणाली से अलग हट कर नई शिक्षा प्रणाली लागू की, जो तीन स्तम्भ शिक्षा प्रणाली पर आधारित है। गरिमा के पिता रजिस्ट्रार थे और उनका समय-समय पर स्थानांतरण एक से दूसरे शहर होता रहता था यही वजह रही कि गरिमा की पढ़ाई बिहार और झारखंड के अलग-अलग स्कूलों से पूरी हुई। उस दौर में जब महिला शिक्षा को बहुत अधिक तवज्जो नहीं दी जाती थी, फिर भी उन्हें पढ़ाई के लिए हमेशा परिवार वालों से प्रोत्साहन मिला।

“मेरे पिता ने हमेशा मुझे और मेरे भाई बहनों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि वे आज के समाज में शिक्षा के महत्व को समझते थे। मैं अपने शहर की पहली स्नातक थी। मेरे माता-पिता की प्रेरणा ने मुझे मेरे दायित्वों का अहसास करवाया कि मैं दूसरे बच्चों को भी शिक्षित कर सकूँ।” — गरिमा विशाल

गरिमा ने अपनी 12वीं की पढ़ाई केंद्रीय विद्यालय, पटना से पूरी की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में दाखिला लिया। बचपन से ही पढ़ाई में अव्वल रही गरिमा का साल 2011 में पढ़ाई के दौरान ही कैंपस सेलेक्शन इंफोसिस जैसी देश की जानी-मानी कंपनी में हो गया। सामाजिक और व्यावहारिक पैमाने के हिसाब से उनके करियर की गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी लेकिन उनके मन के अंदर छुपा शिक्षक सामाजिक बदलाव की सोच को साकार करने के लिए हमेशा बाहर आने की कोशिशें करता रहता। लेकिन तभी उनकी पोस्टिंग भुवनेश्वर में हुई तो वो उनके जीवन का एक परिवतर्नकारी दौर साबित हुआ, जिसने उनके अंदर के शिक्षक को अपना दायित्व निभाने का अवसर दिया।

केनफ़ोलिओज से ख़ास बातचीत के दौरान गरिमा ने बताया कि “जब मेरी पोस्टिंग इंफोसिस के भुवनेश्वर ऑफिस में थी। तभी एक दिन मैं शेयरिंग वाले ऑटो से कहीं जा रही थी। उस ऑटो में एक गुजराती परिवार भी अपने बच्चों के साथ था। उनके बच्चे आपस में हिंदी में बात कर रहे थे। मेरी उत्सुकता बढ़ी कि भुवनेश्वर में गुजराती परिवार के बच्चे इतनी अच्छी हिंदी में कैसे बात कर रहे हैं? उत्सुकतावश मैंने पूछ ही लिया कि वे किस स्कूल में पढ़ते हैं? तो जवाब मिला कि ये स्कूल में नहीं पढ़ते क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में उड़िया भाषा पढ़ाई जाती है और प्राइवेट स्कूल में वे पढ़ा नहीं सकते क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। फिर क्या था उन बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी मैने अपने ऊपर ले ली और शुरू हुआ बच्चों को पढ़ाने का सिलसिला।“

गरिमा सुबह 7 से 9 बजे तक बच्चों को पढ़ाने लगी। धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी और जल्द ही बच्चों की संख्या 30 तक पहुँच गयी। लेकिन नौकरी के दौरान ही उन्होंने एम.बी.ए करने के लिए IIM द्वारा आयोजित कैट की परीक्षा दी थी और कैट में अच्छी रैंक आने से उनका सेलेक्शन IIM लखनऊ में हो गया। जब आगे की पढ़ाई के लिए गरिमा को लखनऊ जाना पड़ा तो उस समय काफी मेहनत करने के बाद उन बच्चों का विभिन्न स्कूलों में दाखिला करवाया गया इसमें जो खर्च आया उसे गरिमा ने वहन किया और महीने की फीस का जिम्मा उनके माता–पिता को दिया।

एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनका कैंपस सेलेक्शन गुड़गांव में ZS नाम के एम.एन.सी में हो गया। लेकिन वो समाज के लिए कुछ करना चाहती थी देश के बेहतर भविष्य की निर्माता बनकर। गरिमा अपने सपने को साकार करने की जद्दोजहद को याद करते हुए कहती हैं “मैं बहुत असमंजस की स्थिति में थी कि मैं कैसे अपने सपने को साकार करूँ तभी इंजीनियरिंग के दौरान ही मेरे दोस्त रहे अभय (अभय नंदन) जो अब मेरे जीवनसाथी हैं, उन्होंने पढ़ाने में मेरी बहुत अधिक रुचि को देखते हुए सलाह दी कि तुम्हारा जो मन है, वही करो, ताकि जीवन में संतुष्ट रहो। अभय की बात मुझे बहुत पसंद आई और दिल–दिमाग दोनों उस हिसाब से सोचने लगा। फिर कुछ और दोस्तों और परिवार के सदस्यों से विचार–विमर्श के बाद स्कूल शुरू करने का रास्ता साफ हो गया।“

साल 2014 गरिमा के जीवन का सबसे परिवर्तनकारी साल सिद्ध हुआ। आई.आई.एम में दाखिला मिला और पांच दोस्तों के साथ मिलकर ऐसे स्कूल की स्थापना का निर्णय लिया गया जिसका अंतिम लक्ष्य शिक्षा के माध्यम से देश को एक सुनहरा भविष्य देना था। गरिमा ने जब नौकरी को अलविदा कहा उस वक्त उनका वार्षिक पैकेज लगभग 20 लाख रुपए का था लेकिन पढ़ाने की सामाजिक जिम्मेदारी उन्हें इन पैसों से भी महत्वपूर्ण लगी। सभी की सहमति मिलने के बाद बिहार में स्कूल खोलने की कोशिश शुरू हुई और आखिरकार मुजफ्फरपुर के माड़ीपुर में स्कूल की स्थापना का फ़ैसला लिया गया। स्कूल का नाम रखा “डेजावू स्कूल ऑफ इनोवेशन” डेजावू फ्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है जुड़ाव महसूस कराने वाला इसलिए स्कूल के माहौल को घर जैसा बनाया और प्ले स्कूल से लेकर दूसरी क्लास तक की पढ़ाई का श्री गणेश हुआ। गरिमा का स्कूल 10 बच्चों से शुरू हुआ था और आज 2 साल के भीतर पांचवी क्लास तक लगभग 100 बच्चे पढ़ रहे हैं। बच्चों के परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ही फ़ीस का निर्धारण किया गया है जो बेहद कम है क्योंकि गरिमा का लक्ष्य केवल गुणवत्ता युक्त शिक्षा उपलब्ध करना है। गरिमा अपने काम में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती वे बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए शिक्षिकाओं को तो नियमित रूप से प्रशिक्षित करती ही हैं साथ ही बच्चों के अभिभावकों को भी समझाती हैं कि वे अपने बच्चे पर घर में किस तरह ध्यान रखें। उन्हें कैसा माहौल दिया जाए साथ ही टेक्नोलॉजी के उपयोग पर भी विशेष बल देती हैं। गरिमा की टीम में सभी डॉक्टर और इंजीनियर शामिल हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं। गरिमा के साथी सदस्य समय-समय पर उनके स्कूल आते हैं, बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण करते, बच्चों और उनके माता पिता की काउंसलिंग भी करते हैं।

मेरे लिए स्कूल स्टाफ का मतलब केवल डिग्रीधारी लोगों से नहीं है मेरे लिए स्टाफ का मतलब वे लोग हैं जिनमें जूनून हो कुछ अलग करने का, ऐसी शिक्षिकाएं जो छोटे बच्चों को मातृत्व की छांव में रखें। इसलिए मैं अपनी स्कूल में महिलाओं को प्राथमिकता देती हूँ क्योंकि मातृत्व का गुण महिला की पहचान होती है।

गरिमा को महिलाओं की क्षमताओं का अच्छे से ज्ञान है तभी तो शादी के बाद खुद के घर के कामों में लगा देने वाली महिलाओं के टैलेंट को वो खत्म नहीं होने देना चाहती, बल्कि उन्हें रोजगार देकर सक्षम बनाना चाहती हैं। गरिमा के इस अनोखे स्कूल में बच्चों की रूचि के अनुसार उन्हें प्रेरित किया जाता है जिससे बच्चे जीवन में वो करें जो वो करना चाहते हैं। गरिमा की मैनेजमेंट की पढ़ाई स्कूल प्रबंधन में बहुत काम आती है, जब वे बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में 360 डिग्री डेवलपमेंट का तरीका अपनाती हैं।

आज हमें गरिमा की सोच पर चलने वाले एक ऐसे युवा समाज की जरूरत है, जो ज्यादा से ज्यादा विकास में योगदान कर सके और अपने जुनून को अपनी आजीविका बनाने में सक्षम हो।

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