
नैनीताल. राज्य आन्दोलनकारी कोटे से सरकारी नौकरी करने वाले 780 आन्दोलनकारियों की नौकरी पर संकट आ गया है. हाईकोर्ट ने सरकार का आरक्षण में दिये आदेश पर दाखिल संसोधन प्रार्थना पत्र को खारिज कर दिया गया. कोर्ट ने कहा कि 1403 दिनों बाद कोर्ट में संसोधन प्रार्थना पत्र स्वीकार नहीं की जा सकता है, हांलाकि राज्य आन्दोलनकारी अधिवक्ता संघ की ओर से कोर्ट में कहा गया है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट कोई आदेश नहीं देता तब तक इन लोगों को नौकरी से ना हटाया जाए. राज्य सरकार ने कोर्ट में संसोधन प्रार्थना पत्र दाखिल कर कोर्ट आदेश का पालन करने की बात कही थी और साथ में 15 सालों से नौकरी करने वाले आन्दोलनकारियों को हटाने में असमर्थता जाहिर की थी.
आपको बतादें कि उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने साल 2018 में आन्दोलनकारियों को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया था. इसके बाद सरकार ने इस मामले में कोई अपील नहीं की तो आन्दोलनकारी मंच ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. सरकार मोडिफिकेशन याचिका लेकर हाईकोर्ट पहुंची थी. कार्यवाहक चीफ जस्टिस संजय कुमार मिश्रा व जस्टिस आरसी खुल्बे की कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई.
27 सालों से चल रही लड़ाई
दरअसल अक्टूबर 1994 को आंदोलनकारियों का मार्च दिल्ली के लिए निकला. पहाड़ से आंदोलनकारी जब रात 12:30 बजे मुजफ्फरनगर में नारसन से लेकर रामपुर तिराहा तक पहुंचे तो उन्हें रोक लिया.आरोप है कि पुलिस ने अचानक लाठीचार्ज व आंसू गैस छोडऩा शुरू कर दिया. इस गोलीकांड में तमाम आंदोलनकारियों की मौत हुई, जबकि महिलाओं के साथ सामुहिक दुष्कर्म व छेड़छाड़ की घटनाएं भी देखी गईं. इस मामले को लेकर सात अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड संघर्ष समिति द्वारा आधा दर्जन याचिकाएं इलाहाबाद हाई कोर्ट में दाखिल की गईं. छह दिसंबर 1994 को कोर्ट ने सीबीआइ से खटीमा, मसूरी व मुजफ्फरनगर कांड पर रिपोर्ट मांगी.